Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


मंझली रानी ः

(७)
कई दिनों तक लगातार बुखार के बाद जिस दिन मुझे होश आया, मैंने अपने आपको एक जनाने अस्पताल के परदा वार्ड के कमरे में पाया। एक खाट पर मैं पड़ी थी, मेरे पास ही दूसरी खाट पर भिखारिन मरणासन्न अवस्था में पड़ी थी। मैं खाट से उठकर बैठने लगी तो मास्टर बाबू पास ही कुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मुझे उठते देखकर पास आकर बोले, अभी आप न उठें। बिना डॉक्टर की अनुमति के आपको खाट से उठना नहीं है।

'क्यों? मैं पथ की भिखारिन, मुझे ये साफ-सुथरे कपड़े, नरम-नरम बिछौने क्यों चाहिए? कल से तो मुझे फिर वही गली-गली की ठोकर खानी पड़ेगी न?

उनकी बड़ी-बड़ी आँखें सजल हो गईं। वे बड़े ही करुण स्वर में बोले, मंझली रानी! क्या तुम मुझे क्षमा न करोगी? तुम्हारा अपराधी तो मैं ही हूँ न? मेरे ही कारण तो आज तुम राजरानी से पथ की भिखारिन बन गई हो।

जब मुझे उन्होंने 'मँझली रानी' कहकर बुलाया तो मैं चौंक पड़ी। सहसा मेरे मुँह से निकल गया, “मास्टर बाबू!"

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दो-तीन दिन में मैं पूर्णतया स्वस्थ हो गई। परंतु भिखारिन की हालत न सुधर सकी, एक दिन उसने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी। उसके अंतिम संस्कारों से निवृत्त होकर मैं मास्टर बाबू के साथ उनके बंगले में रहने लगी। किंतु मैं अभी तक नहीं जान सकी कि वे मेरे कौन हैं? वे मुझ पर माता की तरह ममता और पिता की तरह प्यार करते हैं, भाई की तरह सहायता और मित्र की तरह नेक सलाह देते हैं, पति की तरह रक्षा और पुत्र की तरह आदर करते हैं। कुछ न होते हुए भी वे मेरे सब कुछ हैं। और सब कुछ होते हुए भी वे मेरे कुछ नहीं हैं।

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